जीव नित्य ही कर्म शील है कर्म उससे होता ही रहता है और उसका फल भी उसे मिलता रहता है। वो कर्म जिनका फल हमें इस जीवन में ही रहते मिल जाता है वह सभी क्रियामाण कर्म है। लेकिन ऐसे बहुत सारे कर्म जिनका फल जीव को नहीं मिलता वह संचित अवस्था में चले जाते हैं ऐसा नहीं कि उनका फल नहीं मिलता। इस अवस्था में पक जाने के बाद इनका फल भी अवश्य ही मिलता है।
जो पहले से निश्चित किया हुआ है वह प्रारब्ध कर्म है। कौन कहाँ पैदा हुआ है वह उसका प्रारब्ध ही है। यहीं पर भाग्य की बात आ जाती है। भाग्य भी होता है। हमारे अपने संचित कर्म ही भाग्य का निर्माण करते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है ,भाग्य ही सब कुछ है पुरुषार्थ कुछ नहीं है।
भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं अर्जुन तू क्षत्री (क्षत्रिय )है कर्म कर।अपना क्षात्र धर्म निभा। कर्मों में अधिकार है तेरा। मत चिंता कर क्या फल मिलना है। कर्म तो मनुष्य के अधिकार में होता ही होता है फल चाहे जैसा भी प्राप्त हो। कर्म करने की स्वतंत्रता खुल (खुल्ल )भगवान् ने सबको दे रखी है। लेकिन जब (संचित ) कर्मों का फल नहीं निकलता उसी से प्रारब्ध का जन्म होता है।
संचित कर्म अपना रूप बदलता है उसमें कुछ जुड़ चुका है या फिर घट जाता है , जैसे बैंक में आपके द्वारा जमा की गई राशि कालान्तर में बदल जाती है। संचित कर्मों में भी डेबिट क्रेडिट होता है।
प्रायश्चित करने से कर्म प्रभावित ज़रूर होता है। यदि आपको अनुभव हुआ मुझसे कुछ गलत हुआ और आपने जीवन की दिशा बदली उसे परोपकार में लगाया तो आपके द्वारा कभी किये गए पाप कर्म का बोझ कुछ कम ज़रूर होगा।पुण्य कर्मों का ब्याज भी हमारे संचित कर्मों में जुड़ेगा। जो प्रारब्ध को संशोधित करेगा।
संचित कर्मों का वह भाग जिनका भोग हम वर्तमान में कर रहे हैं वह हमारा प्रारब्ध है। हमारे इस जन्म का प्रारब्ध कुछ और है जब हम अगला जन्म लेते हैं उसका प्रारब्ध कुछ और हो जाता है। इस जन्म का प्रारब्ध पहले से निश्चित था ,कि यह भोगना है।
भीष्म पितामह को अपने ही पौत्र अर्जुन के मारफत संचित कर्मों का फल शरशैया के रूप में प्राप्त होता है। महाभारत में कथा आती है जब भीष्म पितामह युद्ध में धराशायी होने के बाद अर्जुन के द्वारा शर -शैया पर लिटा दिए जाते हैं तब कृष्ण उनके पास आकर पूछते हैं गंगा पुत्र आप इतना कष्ट क्यों भोग रहे हो। भीष्म कहते हैं प्रभु आप तो अन्तर्यामी हैं आप सब जानते हैं। मैंने तो अपने पूर्व के कई जन्मों में भी कोई पाप कर्म नहीं किया है जिनकी मुझे स्मृति है। कृष्ण तब उन्हें योग मार्ग से सौ जन्म पहले ले जाते हैं। भीष्म पितामह देखते हैं इनमें से एक जन्म में वह एक घोड़े पर सवार होकर आखेट के लिए निकलते हैं एक जीव को जख्मी करके काँटों की सेज पर लिटा देते हैं वह जीव उसी अवस्था में सिसकता रहता है। उसी संचित अवस्था का यह कर्म भोग है जो इस जन्म के प्रारब्ध रूप में प्रस्तुत हुआ है। जैसे को तैसा ? नहीं थोड़ा संशोधित होकर।
वरदान और शाप ,ग्रहों की दशा के प्रभाव से भी ऊपर होता है हमारे कर्मों का फल। अगर शाप और वरदान ,या फिर ग्रहों के मनुष्य पर पड़ने वाले प्रभाव का भी कोई महत्व है तो वह इतना ही है ,जो मिलेगा वह कर्मों के सिद्धांत के अंतर्गत ही होगा। उसका अतिक्रमण नहीं करेगा। शाप तो एक बहाना मात्र है। है तो वह कर्मों का ही फल जिसके तहत ये शाप मिला है। लेकिन सब कुछ है कर्म ही।
कर्म प्रधान विश्व करि राखा ,
जो जस करहि सो तस फल चाखा।
क्रिया और प्रति-क्रिया ,कर्म और फल के सिद्धांत के अंतर्गत ही सृष्टि की सारी घटनाएं घट रहीं हैं। ये प्रारब्ध है। हम जो कुछ भी भोग रहे हैं यह प्रारब्ध से ही भोग रहे हैं।
सन्दर्भ -सामिग्री :
karma of previous birth makes our destiny.
जो पहले से निश्चित किया हुआ है वह प्रारब्ध कर्म है। कौन कहाँ पैदा हुआ है वह उसका प्रारब्ध ही है। यहीं पर भाग्य की बात आ जाती है। भाग्य भी होता है। हमारे अपने संचित कर्म ही भाग्य का निर्माण करते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है ,भाग्य ही सब कुछ है पुरुषार्थ कुछ नहीं है।
भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं अर्जुन तू क्षत्री (क्षत्रिय )है कर्म कर।अपना क्षात्र धर्म निभा। कर्मों में अधिकार है तेरा। मत चिंता कर क्या फल मिलना है। कर्म तो मनुष्य के अधिकार में होता ही होता है फल चाहे जैसा भी प्राप्त हो। कर्म करने की स्वतंत्रता खुल (खुल्ल )भगवान् ने सबको दे रखी है। लेकिन जब (संचित ) कर्मों का फल नहीं निकलता उसी से प्रारब्ध का जन्म होता है।
संचित कर्म अपना रूप बदलता है उसमें कुछ जुड़ चुका है या फिर घट जाता है , जैसे बैंक में आपके द्वारा जमा की गई राशि कालान्तर में बदल जाती है। संचित कर्मों में भी डेबिट क्रेडिट होता है।
प्रायश्चित करने से कर्म प्रभावित ज़रूर होता है। यदि आपको अनुभव हुआ मुझसे कुछ गलत हुआ और आपने जीवन की दिशा बदली उसे परोपकार में लगाया तो आपके द्वारा कभी किये गए पाप कर्म का बोझ कुछ कम ज़रूर होगा।पुण्य कर्मों का ब्याज भी हमारे संचित कर्मों में जुड़ेगा। जो प्रारब्ध को संशोधित करेगा।
संचित कर्मों का वह भाग जिनका भोग हम वर्तमान में कर रहे हैं वह हमारा प्रारब्ध है। हमारे इस जन्म का प्रारब्ध कुछ और है जब हम अगला जन्म लेते हैं उसका प्रारब्ध कुछ और हो जाता है। इस जन्म का प्रारब्ध पहले से निश्चित था ,कि यह भोगना है।
भीष्म पितामह को अपने ही पौत्र अर्जुन के मारफत संचित कर्मों का फल शरशैया के रूप में प्राप्त होता है। महाभारत में कथा आती है जब भीष्म पितामह युद्ध में धराशायी होने के बाद अर्जुन के द्वारा शर -शैया पर लिटा दिए जाते हैं तब कृष्ण उनके पास आकर पूछते हैं गंगा पुत्र आप इतना कष्ट क्यों भोग रहे हो। भीष्म कहते हैं प्रभु आप तो अन्तर्यामी हैं आप सब जानते हैं। मैंने तो अपने पूर्व के कई जन्मों में भी कोई पाप कर्म नहीं किया है जिनकी मुझे स्मृति है। कृष्ण तब उन्हें योग मार्ग से सौ जन्म पहले ले जाते हैं। भीष्म पितामह देखते हैं इनमें से एक जन्म में वह एक घोड़े पर सवार होकर आखेट के लिए निकलते हैं एक जीव को जख्मी करके काँटों की सेज पर लिटा देते हैं वह जीव उसी अवस्था में सिसकता रहता है। उसी संचित अवस्था का यह कर्म भोग है जो इस जन्म के प्रारब्ध रूप में प्रस्तुत हुआ है। जैसे को तैसा ? नहीं थोड़ा संशोधित होकर।
वरदान और शाप ,ग्रहों की दशा के प्रभाव से भी ऊपर होता है हमारे कर्मों का फल। अगर शाप और वरदान ,या फिर ग्रहों के मनुष्य पर पड़ने वाले प्रभाव का भी कोई महत्व है तो वह इतना ही है ,जो मिलेगा वह कर्मों के सिद्धांत के अंतर्गत ही होगा। उसका अतिक्रमण नहीं करेगा। शाप तो एक बहाना मात्र है। है तो वह कर्मों का ही फल जिसके तहत ये शाप मिला है। लेकिन सब कुछ है कर्म ही।
कर्म प्रधान विश्व करि राखा ,
जो जस करहि सो तस फल चाखा।
क्रिया और प्रति-क्रिया ,कर्म और फल के सिद्धांत के अंतर्गत ही सृष्टि की सारी घटनाएं घट रहीं हैं। ये प्रारब्ध है। हम जो कुछ भी भोग रहे हैं यह प्रारब्ध से ही भोग रहे हैं।
सन्दर्भ -सामिग्री :
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