मैं कौन हूँ और कहाँ से आया हूँ ?मैं कौन हूँ और कहाँ से आया हूँ ?(प्रवचन अभिलाष साहब ,कबीर आश्रम ,प्रयाग )
मैं कौन हूँ और कहाँ से आया हूँ ?(प्रवचन अभिलाष साहब ,कबीर आश्रम ,प्रयाग )
सन्दर्भ सामिग्री :https://www.youtube.com/watch?v=lZ2Yv6uUgns
कोई मुझे लाया है क्या ?यहां आकर क्या मिलता है ?क्या कोई लाभ है ?अंत में क्या रहता है ?
हड्डी वाली दुनिया को ,हड्डी रहित दुनिया ने धारण कर रखा है। ये पार्थिव जगत है जिसमें पेड़ पौधे पहाड़ आदिक कठोर पदार्थ हैं । लेकिन प्रकृति बड़ी सूक्ष्म है।उस सूक्ष्म जगत का भी एक कारण हड्डी वाली दुनिया है।
यानी स्थूल जगत सूक्ष्म प्रकृति से बना है। उस सूक्ष्म प्रकृति को उत्पन्न होते पहले पहल किसने देखा है ?
इसका मतलब यह है ,मूल प्रकृति नित्य है बनती नहीं है। मूल वस्तु मूल ही रहती है। मूल में मूल न होने से अमूल होता है मूल। ये प्रकृति और पुरुष दोनों मूल हैं। जड़ और चेतन दोनों मूल हैं।
भूमि (जड़ प्रकृति )से प्राण और रक्त पैदा हुए। शरीर पैदा हो गया। ये आत्मा कहाँ से आया ?कैसे पैदा हो गया ?आत्मा तो चेतन है। चेतन तो जड़ से पैदा नहीं होगा। सूक्ष्म प्रकृति से जगत पैदा होता है लेकिन सूक्ष्म प्रकृति नित्य रहती है।
गीत रंग भूल गए ,भूल गई खजड़ी ,
गीत रंग भूल गई ,भूल गई खजड़ी
तीन चीज़ें नाहीं भूला ,लून तेल लकड़ी
लोन (नोन )तेल, लकड़ी सांसारिक वस्तुओं में ही चित्त बस गया। इन्हीं में मन रम गया।चित्त में शांति है आनंद है ?उद्वेग है ,अशांति है दुःख है। रीझना है खीझना है । दो दुखों के बीच के अंतर् को लोग सुख मानते हैं। सुख कुछ नहीं दुखों का क्रम चला करता है। क्योंकि अपने आप का बोध नहीं है। इसको समझो मैं कौन हूँ ?
मैं कहने वाला चेतन होता है। आप चेतन हैं जड़ नहीं। जड़ से सर्वथा विलक्षण हैं नित्य हैं आप । जो सर्वथा विलक्षण नहीं वह दूसरे का कार्य है। आप शुद्ध चेतन हैं आत्मा हैं। आपको मैं का अनुभव होता है हर समय। मैं मैं का भंवर निरंतर चलता है।
जागृत सुप्त और सुसुप्ति तीनों का अनुभव जिसे होता है वह आप हैं । स्वप्न अवस्था में आभासात्मक ,जागृत में भावात्मक तथा सुसुप्ति में अभावात्मक ज्ञान होता है।
भाव का ,आभास का ,अभाव का इन तीनों का ज्ञाता आत्मा है जो सब समय है। देह स्थूल बुद्धि का लक्षण हैं आप देह नहीं हैं। देह भौतिकवाद है यह भी पुराना है। सब समय सब तरह के लोग रहे हैं।
नचिकेता कठोपनिषद में यम से पूछते हैं जो लोग इस संसार से चले गए हैं उनके विषय में संशय रहता है। कुछ लोग कहते हैं ,मरने के बाद भी आत्मा की सत्ता रहती है कुछ कहते हैं नहीं रहती। सत्ता का और असत्ता का विचार हर समय रहा है लेकिन जिसकी सत्ता है वही असत्ता कहता है। वह पागल पन से कहता है जैसे कोई कहे मेरे मुख में जीभ (रसना ,जिभ्या )नहीं है ,कोई कहे मेरा पिता बाल ब्रह्मचारी है तो उसका कथन व्याघात दोष युक्त है। कोई कहे मैं नहीं हूँ सिद्ध हो गया वह है।
शब्दों के जाल में लोग पड़े हैं कोई कहता है मैंने आत्मा का भी त्याग कर दिया ,उनसे पूछिए क्या स्वयं का भी त्याग कर दिया है तो चुप्पी साध लेंगे। दरअसल ऐसे लोग ये कहना चाहते हैं मैं आत्मा वात्मा को नहीं मानता हूँ। लेकिन जो आत्मा वात्मा को नहीं मानता वह खुद आत्मा है। जो राम को नहीं मानता वह खुद राम है जो ब्रह्म को नहीं मानता है खुद ब्रह्म है। जो परमात्मा को नहीं मानता वह खुद परमात्मा है।
जीव शब्द बुनियादी है जैसे मनुष्य शब्द बुनियादी है। जीव को आत्मा ,परमात्मा ,ब्रह्म आदिक सारे विशेषणों से कहा जाता है। जैसे मनुष्य को ही पिता ,माता,थानेदार ,कलेक्टर ,जज ,कमिश्नर ,राष्ट्रपति ,महात्मा ,देवता ,दानव जो कुछ भी कहो मनुष्य बुनियादी है इसलिए वेदान्तियों ने कहा जीव ही ब्रह्म है कोई दूसरा और नहीं है।
प्रश्न करने वाला कि मैं कौन हूँ वह चेतन सत्ता है और नित्य सत्ता है। निर्विकार सत्ता है। बदलने और विनसने वाला नहीं हैं।
आत्म ज्ञान सबसे सूक्ष्म विषय है स्थूल ज्ञान को बूझने समझने में ही कितना माथा पच्ची करना पडता है कितने बरस लग जाते हैं।दृश्य सरल होता है द्रष्टा विषय गूढ़ होता है। हम आसमान साफ़ हो तो पहाड़ की छोटी को तो देखते हैं अपनी आँख को नहीं देखते आँख में लगे कज्जल को नहीं देखते हैं आँख के पास के बाल को नहीं देखते हैं। निकट की वस्तु दुर्विज्ञ होती है। निकट की वस्तु को देखने में कठिनता होती है। आत्मा निकट नहीं है खुद है। आत्मा मेरे पास नहीं वह मैं ही है। मैं से अलग नहीं है। मैं को आत्मा को समझें।
मैं कौन हूँ ?मैं आत्मा हूँ। चेतन हूँ। अविनाशी शुद्ध बुद्ध नित्य हूँ। मेरे में कोई दुःख और संताप नहीं है। सारा दुःख संताप मान मान करके है। मुझे यहां कौन लाया है ?कोई लाया नहीं है। ये जीव वासना वश आता जाता है। कोई लाने वाला समर्थ है ऐसे ईश्वर की कल्पना की जाती है।
तो जो लाने वाला है सर्वत्र है ,सर्व -ज्ञानी है ,परमानंद है सच्चिदानंद है आनंद कंद है तो उसका लाना मंगलकर होना चाहिए।सुखकर होना चाहिए उसके लाने में । लेकिन यह संसार दुःख से भरा है। गीता में कहा गया दुःख का घर है जगत अशाश्वत है। गीता तो जगत का प्रतिबिम्ब है। जीवन को देख लो। सारे शास्त्र सत्ता के प्रतिबिम्ब हैं । असली पुस्तक तो ये जगत है सत्ता है। ये सत्ता सबसे बड़ी किताब है। मनुष्य का दिल सबसे सुरक्षित चित्रपट है। वह जगत को समझे। वह अपने दिल से स्वयं सोचे वस्तुओं का विश्लेषण करे और अपने आपको को समझे। कणों का जोड़ शरीर विकृत होता रहता है।सबके मन बदलने वाले हैं।
तन धर सुखिया काहू न देखा ,जो देखा सो दुखिया
उदय अस्त की बात कहत हैं ,सबका किया विवेका।
शुकाचार्य दुःख ही के कारण गर्भ ही माया त्यागी ,
योगी यंगम ते अति दुखिया तापस के दुःख दूना
आशा तृष्णा सब घट व्यापी ,कोई महल नहीं सूना ,
साँच कहूँ तो सब जग खीझे ,झूठ कहा न जाइ,
कहें कबीर तेहि भू दुखिया ,जिन ये राह चलाई।
संसार को दुखी देख कर शुकाचार्य तो गर्भ में ही विरक्त हो गए।क्योंकि दुनिया दुखद है।
कोई पूर्ण परमात्मा जीव को लावे यहाँ और लाकर दुःख में डाल दे तो बात समझ में नहीं आती। परमात्मा पूर्ण है तो पूर्ण ही काम करना चाहिए उसे आदमी अपूर्ण है इसलिए अपूर्ण काम ही कर पाता है।परमात्मा यदि पूर्ण है तो उसने इतना दुखद संसार बनाकर क्यों डाल दिया सबको उसमें। इसलिए ये सब बातें उलझन की घर हैं कौन लाया मुझे ?कहाँ से लाया ?
कोई लाया वाया नहीं वासना के वश जीव आता और जाता है। (मोह का क्षय ही मोक्ष है ),वासना का त्याग ही आवाजाही से बाहर आना है।
वासना भटकाती है। वासना जहां जिसकी रहती है वहां वह भटकता है। उसी वासना को क्षय करके इस जीवन में शान्ति लेना है।
ईसाई ,यहूदी ,इस्लामी पुनर्जन्म नहीं मानते इन्हें सामी परम्परा का पंथ कहते हैं। ये तीनों नूह पुत्र हैं। नूह बहुत बड़े महापुरुष हुए हैं पुरानी बाइबिल (ओल्ड टेस्टामेंट )में उनकी कहानी है।
साम के वंशज यहूदी से ईसाई निकले ,इस्लामी निकले। ये तीनों पुनर्जन्म की अवधारणा को खुलकर नहीं मानते वैसे बीज है उनके यहां पुनर्जन्म अवधारणा का। कुरआन में इसके बीज हैं। कुरआन में एक जगह लिखा है ईश्वर (अल्लाह )जिन पर नाराज़ हुआ उनमें से कुछ को बंदर कुछ को सूअर बना दिया। तो नाराज़ किस पर होगा ?जो देहधारी कुछ गलत करे, उसे बंदर बना दिया तो पुनर्जन्म तो हो गया।
संत रूमी कहते हैं हम ७७० बार उग चुके घास के समान जनम ले चुके। हदीस में भी ऐसी बात आती है वहां भी सामी परम्परा के बीज हैं परन्तु खुलकर नहीं कहते हैं।
आद्य ,श्रवण ,सिद्ध परम्परा में ८४ के चक्कर में पड़ने की बात की गई है। संत , वैष्णव ये सब मिलाकर आद्य परम्परा में आते हैं।
ये कैसा ईश्वर है जो किसी को अपार सुख में किसी दारुण व्यथा में डाल देता है। इसी पर कहा गया है।
न्याय न कीन ,कीन ठकुराई ,
बिन कीन्हें लिख दै ,ठकुराई।
सामी परम्परा के ईश्वर ने न्याय नहीं किया ठकुराई की।बिना जीव के कर्म किये उसने कर्म लिख दिए। किसी को सूअर बना दिया किसी को गाय किसी को झौंपड़ी में पैदा कर दिया किसी को महल में। किसी को अंगहीन बना दिया किसी को संपन्न बना दिया। तो न्याय नहीं किया ठकुराई की।
तो आपको कोई लाने वाला ईश्वर अलग से नहीं है ईश्वर घट -घट है और आत्मा ईश्वर है। इस देह में रहने वाला परपुरुष जो आत्मा है वही ईश्वर है। परमात्मा है वही दृष्टा ,भर्ता, भोक्ता है। आत्मा चेतन है वह आप हैं आपको कहीं से कोई लाया नहीं। कहीं ले नहीं गया जीव वासना वश ही भटकता है।
(ज़ारी ...)
सन्दर्भ सामिग्री :https://www.youtube.com/watch?v=lZ2Yv6uUgns
कोई मुझे लाया है क्या ?यहां आकर क्या मिलता है ?क्या कोई लाभ है ?अंत में क्या रहता है ?
हड्डी वाली दुनिया को ,हड्डी रहित दुनिया ने धारण कर रखा है। ये पार्थिव जगत है जिसमें पेड़ पौधे पहाड़ आदिक कठोर पदार्थ हैं । लेकिन प्रकृति बड़ी सूक्ष्म है।उस सूक्ष्म जगत का भी एक कारण हड्डी वाली दुनिया है।
यानी स्थूल जगत सूक्ष्म प्रकृति से बना है। उस सूक्ष्म प्रकृति को उत्पन्न होते पहले पहल किसने देखा है ?
इसका मतलब यह है ,मूल प्रकृति नित्य है बनती नहीं है। मूल वस्तु मूल ही रहती है। मूल में मूल न होने से अमूल होता है मूल। ये प्रकृति और पुरुष दोनों मूल हैं। जड़ और चेतन दोनों मूल हैं।
भूमि (जड़ प्रकृति )से प्राण और रक्त पैदा हुए। शरीर पैदा हो गया। ये आत्मा कहाँ से आया ?कैसे पैदा हो गया ?आत्मा तो चेतन है। चेतन तो जड़ से पैदा नहीं होगा। सूक्ष्म प्रकृति से जगत पैदा होता है लेकिन सूक्ष्म प्रकृति नित्य रहती है।
गीत रंग भूल गए ,भूल गई खजड़ी ,
गीत रंग भूल गई ,भूल गई खजड़ी
तीन चीज़ें नाहीं भूला ,लून तेल लकड़ी
लोन (नोन )तेल, लकड़ी सांसारिक वस्तुओं में ही चित्त बस गया। इन्हीं में मन रम गया।चित्त में शांति है आनंद है ?उद्वेग है ,अशांति है दुःख है। रीझना है खीझना है । दो दुखों के बीच के अंतर् को लोग सुख मानते हैं। सुख कुछ नहीं दुखों का क्रम चला करता है। क्योंकि अपने आप का बोध नहीं है। इसको समझो मैं कौन हूँ ?
मैं कहने वाला चेतन होता है। आप चेतन हैं जड़ नहीं। जड़ से सर्वथा विलक्षण हैं नित्य हैं आप । जो सर्वथा विलक्षण नहीं वह दूसरे का कार्य है। आप शुद्ध चेतन हैं आत्मा हैं। आपको मैं का अनुभव होता है हर समय। मैं मैं का भंवर निरंतर चलता है।
जागृत सुप्त और सुसुप्ति तीनों का अनुभव जिसे होता है वह आप हैं । स्वप्न अवस्था में आभासात्मक ,जागृत में भावात्मक तथा सुसुप्ति में अभावात्मक ज्ञान होता है।
भाव का ,आभास का ,अभाव का इन तीनों का ज्ञाता आत्मा है जो सब समय है। देह स्थूल बुद्धि का लक्षण हैं आप देह नहीं हैं। देह भौतिकवाद है यह भी पुराना है। सब समय सब तरह के लोग रहे हैं।
नचिकेता कठोपनिषद में यम से पूछते हैं जो लोग इस संसार से चले गए हैं उनके विषय में संशय रहता है। कुछ लोग कहते हैं ,मरने के बाद भी आत्मा की सत्ता रहती है कुछ कहते हैं नहीं रहती। सत्ता का और असत्ता का विचार हर समय रहा है लेकिन जिसकी सत्ता है वही असत्ता कहता है। वह पागल पन से कहता है जैसे कोई कहे मेरे मुख में जीभ (रसना ,जिभ्या )नहीं है ,कोई कहे मेरा पिता बाल ब्रह्मचारी है तो उसका कथन व्याघात दोष युक्त है। कोई कहे मैं नहीं हूँ सिद्ध हो गया वह है।
शब्दों के जाल में लोग पड़े हैं कोई कहता है मैंने आत्मा का भी त्याग कर दिया ,उनसे पूछिए क्या स्वयं का भी त्याग कर दिया है तो चुप्पी साध लेंगे। दरअसल ऐसे लोग ये कहना चाहते हैं मैं आत्मा वात्मा को नहीं मानता हूँ। लेकिन जो आत्मा वात्मा को नहीं मानता वह खुद आत्मा है। जो राम को नहीं मानता वह खुद राम है जो ब्रह्म को नहीं मानता है खुद ब्रह्म है। जो परमात्मा को नहीं मानता वह खुद परमात्मा है।
जीव शब्द बुनियादी है जैसे मनुष्य शब्द बुनियादी है। जीव को आत्मा ,परमात्मा ,ब्रह्म आदिक सारे विशेषणों से कहा जाता है। जैसे मनुष्य को ही पिता ,माता,थानेदार ,कलेक्टर ,जज ,कमिश्नर ,राष्ट्रपति ,महात्मा ,देवता ,दानव जो कुछ भी कहो मनुष्य बुनियादी है इसलिए वेदान्तियों ने कहा जीव ही ब्रह्म है कोई दूसरा और नहीं है।
प्रश्न करने वाला कि मैं कौन हूँ वह चेतन सत्ता है और नित्य सत्ता है। निर्विकार सत्ता है। बदलने और विनसने वाला नहीं हैं।
आत्म ज्ञान सबसे सूक्ष्म विषय है स्थूल ज्ञान को बूझने समझने में ही कितना माथा पच्ची करना पडता है कितने बरस लग जाते हैं।दृश्य सरल होता है द्रष्टा विषय गूढ़ होता है। हम आसमान साफ़ हो तो पहाड़ की छोटी को तो देखते हैं अपनी आँख को नहीं देखते आँख में लगे कज्जल को नहीं देखते हैं आँख के पास के बाल को नहीं देखते हैं। निकट की वस्तु दुर्विज्ञ होती है। निकट की वस्तु को देखने में कठिनता होती है। आत्मा निकट नहीं है खुद है। आत्मा मेरे पास नहीं वह मैं ही है। मैं से अलग नहीं है। मैं को आत्मा को समझें।
मैं कौन हूँ ?मैं आत्मा हूँ। चेतन हूँ। अविनाशी शुद्ध बुद्ध नित्य हूँ। मेरे में कोई दुःख और संताप नहीं है। सारा दुःख संताप मान मान करके है। मुझे यहां कौन लाया है ?कोई लाया नहीं है। ये जीव वासना वश आता जाता है। कोई लाने वाला समर्थ है ऐसे ईश्वर की कल्पना की जाती है।
तो जो लाने वाला है सर्वत्र है ,सर्व -ज्ञानी है ,परमानंद है सच्चिदानंद है आनंद कंद है तो उसका लाना मंगलकर होना चाहिए।सुखकर होना चाहिए उसके लाने में । लेकिन यह संसार दुःख से भरा है। गीता में कहा गया दुःख का घर है जगत अशाश्वत है। गीता तो जगत का प्रतिबिम्ब है। जीवन को देख लो। सारे शास्त्र सत्ता के प्रतिबिम्ब हैं । असली पुस्तक तो ये जगत है सत्ता है। ये सत्ता सबसे बड़ी किताब है। मनुष्य का दिल सबसे सुरक्षित चित्रपट है। वह जगत को समझे। वह अपने दिल से स्वयं सोचे वस्तुओं का विश्लेषण करे और अपने आपको को समझे। कणों का जोड़ शरीर विकृत होता रहता है।सबके मन बदलने वाले हैं।
तन धर सुखिया काहू न देखा ,जो देखा सो दुखिया
उदय अस्त की बात कहत हैं ,सबका किया विवेका।
शुकाचार्य दुःख ही के कारण गर्भ ही माया त्यागी ,
योगी यंगम ते अति दुखिया तापस के दुःख दूना
आशा तृष्णा सब घट व्यापी ,कोई महल नहीं सूना ,
साँच कहूँ तो सब जग खीझे ,झूठ कहा न जाइ,
कहें कबीर तेहि भू दुखिया ,जिन ये राह चलाई।
संसार को दुखी देख कर शुकाचार्य तो गर्भ में ही विरक्त हो गए।क्योंकि दुनिया दुखद है।
कोई पूर्ण परमात्मा जीव को लावे यहाँ और लाकर दुःख में डाल दे तो बात समझ में नहीं आती। परमात्मा पूर्ण है तो पूर्ण ही काम करना चाहिए उसे आदमी अपूर्ण है इसलिए अपूर्ण काम ही कर पाता है।परमात्मा यदि पूर्ण है तो उसने इतना दुखद संसार बनाकर क्यों डाल दिया सबको उसमें। इसलिए ये सब बातें उलझन की घर हैं कौन लाया मुझे ?कहाँ से लाया ?
कोई लाया वाया नहीं वासना के वश जीव आता और जाता है। (मोह का क्षय ही मोक्ष है ),वासना का त्याग ही आवाजाही से बाहर आना है।
वासना भटकाती है। वासना जहां जिसकी रहती है वहां वह भटकता है। उसी वासना को क्षय करके इस जीवन में शान्ति लेना है।
ईसाई ,यहूदी ,इस्लामी पुनर्जन्म नहीं मानते इन्हें सामी परम्परा का पंथ कहते हैं। ये तीनों नूह पुत्र हैं। नूह बहुत बड़े महापुरुष हुए हैं पुरानी बाइबिल (ओल्ड टेस्टामेंट )में उनकी कहानी है।
साम के वंशज यहूदी से ईसाई निकले ,इस्लामी निकले। ये तीनों पुनर्जन्म की अवधारणा को खुलकर नहीं मानते वैसे बीज है उनके यहां पुनर्जन्म अवधारणा का। कुरआन में इसके बीज हैं। कुरआन में एक जगह लिखा है ईश्वर (अल्लाह )जिन पर नाराज़ हुआ उनमें से कुछ को बंदर कुछ को सूअर बना दिया। तो नाराज़ किस पर होगा ?जो देहधारी कुछ गलत करे, उसे बंदर बना दिया तो पुनर्जन्म तो हो गया।
संत रूमी कहते हैं हम ७७० बार उग चुके घास के समान जनम ले चुके। हदीस में भी ऐसी बात आती है वहां भी सामी परम्परा के बीज हैं परन्तु खुलकर नहीं कहते हैं।
आद्य ,श्रवण ,सिद्ध परम्परा में ८४ के चक्कर में पड़ने की बात की गई है। संत , वैष्णव ये सब मिलाकर आद्य परम्परा में आते हैं।
ये कैसा ईश्वर है जो किसी को अपार सुख में किसी दारुण व्यथा में डाल देता है। इसी पर कहा गया है।
न्याय न कीन ,कीन ठकुराई ,
बिन कीन्हें लिख दै ,ठकुराई।
सामी परम्परा के ईश्वर ने न्याय नहीं किया ठकुराई की।बिना जीव के कर्म किये उसने कर्म लिख दिए। किसी को सूअर बना दिया किसी को गाय किसी को झौंपड़ी में पैदा कर दिया किसी को महल में। किसी को अंगहीन बना दिया किसी को संपन्न बना दिया। तो न्याय नहीं किया ठकुराई की।
तो आपको कोई लाने वाला ईश्वर अलग से नहीं है ईश्वर घट -घट है और आत्मा ईश्वर है। इस देह में रहने वाला परपुरुष जो आत्मा है वही ईश्वर है। परमात्मा है वही दृष्टा ,भर्ता, भोक्ता है। आत्मा चेतन है वह आप हैं आपको कहीं से कोई लाया नहीं। कहीं ले नहीं गया जीव वासना वश ही भटकता है।
(ज़ारी ...)
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